आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की युगान्तरीय चेतना गायत्री की युगान्तरीय चेतनाश्रीराम शर्मा आचार्य
|
5 पाठकों को प्रिय 145 पाठक हैं |
प्रस्तुत है गायत्री की युगान्तरीय चेतना
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
युग शक्ति के रूप में गायत्री चेतना का अरुणोदय
यों मनुष्य के पास प्रत्यक्ष सामर्थ्यों की कमी नहीं है और उनका सदुपयोग
करके वह अपने तथा दूसरों के लिए बहुत कुछ करता है, किन्तु उसकी असीम
सामर्थ्य को देखना हो तो मानवी चेतना के अन्तराल में प्रवेश करना होगा।
व्यक्ति की महिमा को बाहर भी देखा जा सकता है, पर गरिमा का पता
लगाना हो तो अन्तरंग ही टटोलना पड़ेगा। इस अन्तरंग को समझने, उसे परिष्कृत
एवं समर्थ बनाने, जागृत अन्तःक्षमता का सदुप्रयोग कर सकने के विज्ञान को
ही ब्रह्यविद्या कहते हैं। ब्रह्यविद्या के विशाल कलेवर का बीज सूत्र
गायत्री को समझा जा सकता है। प्रकारान्तर से गायत्री को मानवी गरिमा के
अन्तराल में प्रवेश पा सकने वाली और वहाँ जो रहस्यमय है उसे प्रत्यक्ष में
उखाड़ लाने की सामर्थ्य को गायत्री कह सकते हैं। नवयुग के सृजन में
सर्वोपरि उपयोग इसी दि्व्य शक्ति का होगा।
मनुष्य की बहिरंग सत्ता को भी कई तरह की सामर्थ्य प्राप्त है, पर वे सभी सीमित होती हैं और अस्थिर भी। सामान्यतया सम्पत्ति, बलिष्ठता शिक्षा प्रतिभा पदवी, अधिकार जैसे साधन ही वैभव में गिने जाते हैं और इन्हीं के सहारे कई तरह की सफलताएँ भी सम्पादित की जाती हैं। इतने पर भी इनका परिणाम सीमित ही रहता है और इसके सहारे व्यक्तिगत वैभव सीमित मात्रा में ही उपलब्ध किया जा सकता है। भौतिक सफलताएँ मात्र अपने पुरुषार्थ और साधनों के सहारे ही नहीं मिल जातीं वरन् उनके लिए दूसरों की सहायता और परिस्थितियों की अनुकूलता पर भी निर्भर रहना पड़ता है। यदि बाहरी अवरोध उठ खड़े हों, परिस्थितियाँ प्रतिकूलता की दिशा में उलट पड़ें तो साधन और कौशल आत्मशक्ति के साथ जुड़ा हुआ वर्चस् भौतिक साधनों की तुलना में अत्यधिक होना सुनिश्चित है, उसमें न तो असीमता का बन्धन है न ही स्वल्पता का असन्तोष। उस क्षेत्र में प्रचुरता असीम है। आत्मा का सम्बन्ध सूत्र परमात्मा के साथ जुड़ा होने के कारण आवश्यकतानुसार उस स्रोत से बहुत कुछ, सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।
कुएँ में सीमित पानी भरा रहता है, पर खींचने पर जो कमी पड़ती है उसे भूमिगत जलस्रोत सहज ही पूरी करते रहते हैं। चिनगारी छोटी होती है, पर ईधन जैसे साधन मिलते ही उसे दावानल का विकराल रूप धारण करने में देर नहीं लगती। व्यापक अग्नि तत्वों का सहयोग मिलने का ही चमक्तार है। नदी की धारा सीमित होती है। उसमें थोड़-सा जल बहता है, पर हिमालय जैसे विशाल जलस्रोत के साथ तारतम्य जुड़ा होने के कारण वह अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित ही बनी रहती है, जबकि पोखर का पानी अपने तक ही सीमित रहने के कारण उपयोग कर्ताओं का, धूप-हवा का दबाव सह नहीं पाता और जल्दी ही सूखकर समाप्त हो जाता है। भौतिक सामर्थ्य की तुलना पोखर के पानी से की जा सकती है और आत्मिक शक्तियों को हिमालय से निकलने वाली नदियों के समतुल्य समझा जा सकता है।
भौतिक पदार्थ परिवर्तनशील हैं। इस जगत का सारा क्रम ही उतार-चढ़ाव के गतिचक्र पर परिभ्रमण करता है। यहाँ अणु से लेकर सूर्य तक सभी गतिशील हैं, वे चलते, बढ़ते और बदलते हैं। स्थिरता दीखती भर है, वस्तुतः है नहीं। पदार्थ का स्वभाव ही परिवर्तन है। जन्म और मरण से कोई बच नहीं सकता। इसी प्रकार स्थिरता के लिए भी कोई गुञ्जायश नहीं है। शरीर शैशव से यौवन तक बढता तो है पर वृद्धावस्था और मरण भी उतने ही सुनिश्चित हैं। शिक्षा और अनुभव के सहारे बुद्धि-वैभव बढ़ता है, परन्तु यह निश्चित है कि आयु आधिक्य के साथ-साथ स्मरण शक्ति से लेकर कल्पना और निर्णय के काम आने वाले बुद्धि संस्थान के सभी घटक अशक्त होते चले जाते हैं। एक समय ऐसा आता है जब एक समय का बुद्धिमान दूसरे समय गतिहीन माना जाता है और ‘सठियाने’ से तिरस्कार का भाजन बनता है। वृद्धावस्था की आवश्यकता और रुगण्ता से तो सभी परिचित हैं। बुद्धिबल की तरह इन्द्रियबल भी ढलान के दिन आने पर क्रमशः घटता ही चला जाता है। विभूतियाँ दुर्बल सा साथ छोड़ देती हैं, तब पदाधिकार को हस्तगत किये रहना तो दूर गृहपति का पद भी नाम मात्र के लिए ही रह जाता है। परिवार का संचालन कमाऊ लोगों के हाथ में चला जाता है। किसी समय का गृहपति इन परिस्थितियों में मूकदर्शक और कुछ करने बदलने में अपने को असहाय ही अनुभव करता है। राजनैतिक क्षेत्र में बूढ़े नेताओं को हटाने का जो आन्दोलन चल रहा है उसके पीछे यह अशक्तता के तत्व ही काम करते दिखाई पड़ते हैं।
साधनों का भी यही हाल है। धन उपार्जन से मिलने वाली सफलताएँ बढ़े हुए खर्च के छेद से होकर टपकती रहती है और संग्रह का भण्डार अपूर्ण बना रहता है, फिर उपार्जन की कमी एवं खर्च की वृद्धि के असंतुलन भी आते रहते हैं। न तो अमीरी स्थिति है न गरीबी। ऐसी दशा में धन के आधार पर बनने वाली योजनाएँ भी अस्त-व्यस्त बनी रहती हैं। अर्थ साधनों के उपयोग कर्त्ता यदि प्रमादी या दुर्बुद्धिग्रस्त हुए तो सम्पत्ति का दुरुपयोग होता है और उससे उलट कर विग्रह-संकट ही उठ खड़ा होता है।
प्रत्यक्ष सब कुछ दीखने वाले भौतिक साधनों की समीपता, अस्थिरता, अनिश्चितता को देखते हुए उनके द्वारा जो सफलताएँ मिलती हैं उन्हें भाग्योदय जैसी आकस्मिकता ही माना जाता है। सांसारिक सफलताओं तक के सम्बन्ध में उनके सहारे अभीष्ट मनोरथ पूरा हो सकने की आशा भर लगाई जा सकती है। विश्वास नहीं किया जा सकता। जब सामान्य प्रयोजनों तक के सम्बन्ध में इतना असमंजस है तो युग परिवर्तन जैसे कल्पनातीत विस्तार वाले, असीम शक्ति-साधनों की आवश्यकता वाले महान कार्य को उस आधार पर कैसे सम्पन्न किया जा सकता है। इतिहास साक्षी है कि हर दृष्टि से समर्थ समझी जाने वाली सत्ताएँ अपने सम्प्रदाय को व्यापक बनाने जैसा छोटा मनोरथ पूरा न कर सकीं।
इस्लाम और क्रिश्चियेनिटी के विस्तार के लिए आतुर सत्ताधारी हर सम्भव उपाय अपनाने पर भी बहुत थोड़ी सफलता पा सके हैं। ऐसी दशा में यह सोचना हास्यास्पद ही होगा कि भौतिक साधनों के बलबूते शालीनता का विश्वव्यापी वातावरण बनाया जा सकना शक्य है। अधिनायक-वादियों ने अपने देशों की समूची शक्ति सामर्थ्य मुट्ठी में करके परिवर्तन के जो सपने देखे थे, उनकी आंशिक पूर्ति भी नहीं हो पाई है। जर्मनी, इटली, रूस, चीन आदि में साधनों के आधार पर परिवर्तन के प्रयोग बड़े पैमाने पर हुए हैं। उचित से लेकर अनुचित तक सब कुछ उस महत्वाकांक्षा के लिए बरता गया है। पर्यवेक्षक जानते हैं कि इन प्रयत्नों में कितनी सफलता मिली। जो मिली वह कितनी देर ठहर सकी। जो ठहरी हुई है वह कितने समय टिक सकेगी और प्रायोजनों का मनोरथ कितना पूरा कर सकेंगी इसमें अभी भी पूरा-पूरा सन्देह है।
भौतिक प्रगति के लिए जो प्रयत्न और प्रयोग चलते रहते हैं, जो सरंजाम खड़े होते हैं उनें प्रचुर परिमाण में शक्ति लगानी पड़ी। उद्योग, व्यवसाय, शिक्षा, सुरक्षा, धर्म-धारणा जैसे कार्यों में कितनी साधन-शक्ति लगती है उसका परिमाण और विस्तार देखते हुए हत्प्रभ रह जाना पड़ता है। इतने पर भी शान्ति और प्रगति की समस्या का आंशिक हल ही हो पाता है। साधनों के अभाव का असमंजस सदा ही बना रहता है। योजनाएँ स्थगित होती रहती हैं। जब बाह्य सुविधा संवर्धन का उद्देश्य प्रस्तुत शक्ति-साधनों के सहारे पूरा होने में इतनी कठिनाई है तो जनमानस का परिष्कार और वातावरण के परिवर्तन जैसा विशाल कार्य इतने भर से किस प्रकार पूरा हो सकेगा ? यह ठीक है कि नवनिर्माण के लिए भौतिक साधनों की भी आवश्यकता है और उन्हें जुटाने के लिए सामर्थ्य भर प्रयत्न करने होंगे, पर उन्हें आधार मानकर नहीं चला जा सकता है। कोई भौतिक योजना चाहे वह कितनी ही बड़ी और कितने ही अधिक साधनों पर अवलम्बित क्यों न हो इतने महान्, इतने व्यापक उद्देश्य को पूरा कर सकने में समर्थ नहीं हो सकेगी।
परिवर्तन व्यक्ति के अन्तराल का होना है, दृष्टिकोण बदला जाना है, आस्थाओं का परिष्कार किया जाना है और आकांक्षाओं का प्रवाह मोड़ा जाना है। सदाशयता का पक्षधर मनोबल उभारना है, आत्मज्ञान करना और आत्म-गौरव जगाना है—यही है युग परिवर्तन का मूलभूत आधार। आंतरिक परिष्कार की प्रक्रिया ही व्यक्ति की उत्कृष्टता और समाज की श्रेष्ठता के रूप में परिलक्षित होगी। सारे प्रयास- पुरुषार्थ अन्तर्जगत से सम्बन्धित हैं, इसीलिए साधन भी उसी स्तर के होने चाहिए। सामर्थ्य ऐसी होनी चाहिए जो अभीष्ट प्रयोजन को पूरा कर सकने के उपयुक्त हो सके। निश्चित रूप से यह कार्य आत्म शक्ति का ही है, उत्पादन और उपयोग उसी का किया जाता है। युग निर्माण के लिए इसी ऊर्जा का उपार्जन आधारभूत काम समझा जा सकता है। ऐसा काम जिसे करने की आवश्यकता ठीक इन्हीं दिनों है।
आत्मशक्ति का उत्पादन जिन यन्त्रों द्वारा जिन कारखानों में किया जाता है उसे व्यक्ति-चेतना ही नाम दिया जा सकता है। मानवी अन्तःकरण को अणु ऊर्जा उत्पादन के समतुल्य माना जा सकता है। शरीर तो अवतरण मात्र है, जिसकी तुलना आयुध, औजार, वाहन आदि से ही की जाती है। उसमें कितना कुछ हो सकता है ? इसे श्रमिक से लेकर पहलवान् तक की तुच्छ सफलताओं को देखते हुए जाना जा सकता है। बुद्धिपटल इससे ऊँचा है। वह भी तथाकथित व्यवहार कुशल बुद्दमानों से लेकर शोधकर्ताओं की सीमा तक पहुँचकर समाप्त हो जाता है। उस आधार पर व्यक्ति की उन्नति और समाज की सुविधा कुछ न कुछ तो बढ़ती ही है, पर उतने भर से व्यापक परिवर्तनों की आशा नहीं की जा सकती। पैसा महाशय तो जैसे कुछ हैं वैसे ही हैं, उसके सहारे लम्बी योजनाएँ बनाने से पहले यह सोचना पड़ता है कि वे जिनके हाथ में रहेंगे, उन्हें नैतिक दृष्टि से जीवित भी छोड़ेंगे या नहीं।
सार्वजनिक उपयोग में आने से पहले वे प्रयोगकर्ताओं को भी लुभाते और उन्हीं में अटक जाते हैं। लोकमंगल के लिए बनी सरकारी योजनाओं के लिए निश्चित की गयी धनराशि का कितना अंश अभीष्ट प्रयोजन में लगता है और कितना बिचौलिए हड़प जाते हैं यह कौतुक हर किसी को पग-पग पर देखने के लिए मिलता रहता है। ऐसी दशा में युग निर्माण के लिए उस शक्ति का संचय कर लेने पर भी क्या कुछ प्रयोजन पूरा हो सकेगा ? इसमें पूरा संदेह है।
आत्मिक क्षेत्र की योजनाएँ आत्मशक्ति के उपार्जन और नियोजन से ही सम्भव हो सकेंगी। मनुष्य के अन्तराल में सन्निहित ज्ञात और अविज्ञात शक्तियों की समर्थता और संभावना असीम है, उसे अनन्त कहा जाये तो भी अत्युक्ति न होगी। मनःशास्त्री बताते हैं कि मानवी मस्तिष्क अद्भुत है, उसकी सुविस्तृत क्षमता में से अभी तक मात्र सात प्रतिशत को ही जाना जा सका है।
मनुष्य की बहिरंग सत्ता को भी कई तरह की सामर्थ्य प्राप्त है, पर वे सभी सीमित होती हैं और अस्थिर भी। सामान्यतया सम्पत्ति, बलिष्ठता शिक्षा प्रतिभा पदवी, अधिकार जैसे साधन ही वैभव में गिने जाते हैं और इन्हीं के सहारे कई तरह की सफलताएँ भी सम्पादित की जाती हैं। इतने पर भी इनका परिणाम सीमित ही रहता है और इसके सहारे व्यक्तिगत वैभव सीमित मात्रा में ही उपलब्ध किया जा सकता है। भौतिक सफलताएँ मात्र अपने पुरुषार्थ और साधनों के सहारे ही नहीं मिल जातीं वरन् उनके लिए दूसरों की सहायता और परिस्थितियों की अनुकूलता पर भी निर्भर रहना पड़ता है। यदि बाहरी अवरोध उठ खड़े हों, परिस्थितियाँ प्रतिकूलता की दिशा में उलट पड़ें तो साधन और कौशल आत्मशक्ति के साथ जुड़ा हुआ वर्चस् भौतिक साधनों की तुलना में अत्यधिक होना सुनिश्चित है, उसमें न तो असीमता का बन्धन है न ही स्वल्पता का असन्तोष। उस क्षेत्र में प्रचुरता असीम है। आत्मा का सम्बन्ध सूत्र परमात्मा के साथ जुड़ा होने के कारण आवश्यकतानुसार उस स्रोत से बहुत कुछ, सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।
कुएँ में सीमित पानी भरा रहता है, पर खींचने पर जो कमी पड़ती है उसे भूमिगत जलस्रोत सहज ही पूरी करते रहते हैं। चिनगारी छोटी होती है, पर ईधन जैसे साधन मिलते ही उसे दावानल का विकराल रूप धारण करने में देर नहीं लगती। व्यापक अग्नि तत्वों का सहयोग मिलने का ही चमक्तार है। नदी की धारा सीमित होती है। उसमें थोड़-सा जल बहता है, पर हिमालय जैसे विशाल जलस्रोत के साथ तारतम्य जुड़ा होने के कारण वह अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित ही बनी रहती है, जबकि पोखर का पानी अपने तक ही सीमित रहने के कारण उपयोग कर्ताओं का, धूप-हवा का दबाव सह नहीं पाता और जल्दी ही सूखकर समाप्त हो जाता है। भौतिक सामर्थ्य की तुलना पोखर के पानी से की जा सकती है और आत्मिक शक्तियों को हिमालय से निकलने वाली नदियों के समतुल्य समझा जा सकता है।
भौतिक पदार्थ परिवर्तनशील हैं। इस जगत का सारा क्रम ही उतार-चढ़ाव के गतिचक्र पर परिभ्रमण करता है। यहाँ अणु से लेकर सूर्य तक सभी गतिशील हैं, वे चलते, बढ़ते और बदलते हैं। स्थिरता दीखती भर है, वस्तुतः है नहीं। पदार्थ का स्वभाव ही परिवर्तन है। जन्म और मरण से कोई बच नहीं सकता। इसी प्रकार स्थिरता के लिए भी कोई गुञ्जायश नहीं है। शरीर शैशव से यौवन तक बढता तो है पर वृद्धावस्था और मरण भी उतने ही सुनिश्चित हैं। शिक्षा और अनुभव के सहारे बुद्धि-वैभव बढ़ता है, परन्तु यह निश्चित है कि आयु आधिक्य के साथ-साथ स्मरण शक्ति से लेकर कल्पना और निर्णय के काम आने वाले बुद्धि संस्थान के सभी घटक अशक्त होते चले जाते हैं। एक समय ऐसा आता है जब एक समय का बुद्धिमान दूसरे समय गतिहीन माना जाता है और ‘सठियाने’ से तिरस्कार का भाजन बनता है। वृद्धावस्था की आवश्यकता और रुगण्ता से तो सभी परिचित हैं। बुद्धिबल की तरह इन्द्रियबल भी ढलान के दिन आने पर क्रमशः घटता ही चला जाता है। विभूतियाँ दुर्बल सा साथ छोड़ देती हैं, तब पदाधिकार को हस्तगत किये रहना तो दूर गृहपति का पद भी नाम मात्र के लिए ही रह जाता है। परिवार का संचालन कमाऊ लोगों के हाथ में चला जाता है। किसी समय का गृहपति इन परिस्थितियों में मूकदर्शक और कुछ करने बदलने में अपने को असहाय ही अनुभव करता है। राजनैतिक क्षेत्र में बूढ़े नेताओं को हटाने का जो आन्दोलन चल रहा है उसके पीछे यह अशक्तता के तत्व ही काम करते दिखाई पड़ते हैं।
साधनों का भी यही हाल है। धन उपार्जन से मिलने वाली सफलताएँ बढ़े हुए खर्च के छेद से होकर टपकती रहती है और संग्रह का भण्डार अपूर्ण बना रहता है, फिर उपार्जन की कमी एवं खर्च की वृद्धि के असंतुलन भी आते रहते हैं। न तो अमीरी स्थिति है न गरीबी। ऐसी दशा में धन के आधार पर बनने वाली योजनाएँ भी अस्त-व्यस्त बनी रहती हैं। अर्थ साधनों के उपयोग कर्त्ता यदि प्रमादी या दुर्बुद्धिग्रस्त हुए तो सम्पत्ति का दुरुपयोग होता है और उससे उलट कर विग्रह-संकट ही उठ खड़ा होता है।
प्रत्यक्ष सब कुछ दीखने वाले भौतिक साधनों की समीपता, अस्थिरता, अनिश्चितता को देखते हुए उनके द्वारा जो सफलताएँ मिलती हैं उन्हें भाग्योदय जैसी आकस्मिकता ही माना जाता है। सांसारिक सफलताओं तक के सम्बन्ध में उनके सहारे अभीष्ट मनोरथ पूरा हो सकने की आशा भर लगाई जा सकती है। विश्वास नहीं किया जा सकता। जब सामान्य प्रयोजनों तक के सम्बन्ध में इतना असमंजस है तो युग परिवर्तन जैसे कल्पनातीत विस्तार वाले, असीम शक्ति-साधनों की आवश्यकता वाले महान कार्य को उस आधार पर कैसे सम्पन्न किया जा सकता है। इतिहास साक्षी है कि हर दृष्टि से समर्थ समझी जाने वाली सत्ताएँ अपने सम्प्रदाय को व्यापक बनाने जैसा छोटा मनोरथ पूरा न कर सकीं।
इस्लाम और क्रिश्चियेनिटी के विस्तार के लिए आतुर सत्ताधारी हर सम्भव उपाय अपनाने पर भी बहुत थोड़ी सफलता पा सके हैं। ऐसी दशा में यह सोचना हास्यास्पद ही होगा कि भौतिक साधनों के बलबूते शालीनता का विश्वव्यापी वातावरण बनाया जा सकना शक्य है। अधिनायक-वादियों ने अपने देशों की समूची शक्ति सामर्थ्य मुट्ठी में करके परिवर्तन के जो सपने देखे थे, उनकी आंशिक पूर्ति भी नहीं हो पाई है। जर्मनी, इटली, रूस, चीन आदि में साधनों के आधार पर परिवर्तन के प्रयोग बड़े पैमाने पर हुए हैं। उचित से लेकर अनुचित तक सब कुछ उस महत्वाकांक्षा के लिए बरता गया है। पर्यवेक्षक जानते हैं कि इन प्रयत्नों में कितनी सफलता मिली। जो मिली वह कितनी देर ठहर सकी। जो ठहरी हुई है वह कितने समय टिक सकेगी और प्रायोजनों का मनोरथ कितना पूरा कर सकेंगी इसमें अभी भी पूरा-पूरा सन्देह है।
भौतिक प्रगति के लिए जो प्रयत्न और प्रयोग चलते रहते हैं, जो सरंजाम खड़े होते हैं उनें प्रचुर परिमाण में शक्ति लगानी पड़ी। उद्योग, व्यवसाय, शिक्षा, सुरक्षा, धर्म-धारणा जैसे कार्यों में कितनी साधन-शक्ति लगती है उसका परिमाण और विस्तार देखते हुए हत्प्रभ रह जाना पड़ता है। इतने पर भी शान्ति और प्रगति की समस्या का आंशिक हल ही हो पाता है। साधनों के अभाव का असमंजस सदा ही बना रहता है। योजनाएँ स्थगित होती रहती हैं। जब बाह्य सुविधा संवर्धन का उद्देश्य प्रस्तुत शक्ति-साधनों के सहारे पूरा होने में इतनी कठिनाई है तो जनमानस का परिष्कार और वातावरण के परिवर्तन जैसा विशाल कार्य इतने भर से किस प्रकार पूरा हो सकेगा ? यह ठीक है कि नवनिर्माण के लिए भौतिक साधनों की भी आवश्यकता है और उन्हें जुटाने के लिए सामर्थ्य भर प्रयत्न करने होंगे, पर उन्हें आधार मानकर नहीं चला जा सकता है। कोई भौतिक योजना चाहे वह कितनी ही बड़ी और कितने ही अधिक साधनों पर अवलम्बित क्यों न हो इतने महान्, इतने व्यापक उद्देश्य को पूरा कर सकने में समर्थ नहीं हो सकेगी।
परिवर्तन व्यक्ति के अन्तराल का होना है, दृष्टिकोण बदला जाना है, आस्थाओं का परिष्कार किया जाना है और आकांक्षाओं का प्रवाह मोड़ा जाना है। सदाशयता का पक्षधर मनोबल उभारना है, आत्मज्ञान करना और आत्म-गौरव जगाना है—यही है युग परिवर्तन का मूलभूत आधार। आंतरिक परिष्कार की प्रक्रिया ही व्यक्ति की उत्कृष्टता और समाज की श्रेष्ठता के रूप में परिलक्षित होगी। सारे प्रयास- पुरुषार्थ अन्तर्जगत से सम्बन्धित हैं, इसीलिए साधन भी उसी स्तर के होने चाहिए। सामर्थ्य ऐसी होनी चाहिए जो अभीष्ट प्रयोजन को पूरा कर सकने के उपयुक्त हो सके। निश्चित रूप से यह कार्य आत्म शक्ति का ही है, उत्पादन और उपयोग उसी का किया जाता है। युग निर्माण के लिए इसी ऊर्जा का उपार्जन आधारभूत काम समझा जा सकता है। ऐसा काम जिसे करने की आवश्यकता ठीक इन्हीं दिनों है।
आत्मशक्ति का उत्पादन जिन यन्त्रों द्वारा जिन कारखानों में किया जाता है उसे व्यक्ति-चेतना ही नाम दिया जा सकता है। मानवी अन्तःकरण को अणु ऊर्जा उत्पादन के समतुल्य माना जा सकता है। शरीर तो अवतरण मात्र है, जिसकी तुलना आयुध, औजार, वाहन आदि से ही की जाती है। उसमें कितना कुछ हो सकता है ? इसे श्रमिक से लेकर पहलवान् तक की तुच्छ सफलताओं को देखते हुए जाना जा सकता है। बुद्धिपटल इससे ऊँचा है। वह भी तथाकथित व्यवहार कुशल बुद्दमानों से लेकर शोधकर्ताओं की सीमा तक पहुँचकर समाप्त हो जाता है। उस आधार पर व्यक्ति की उन्नति और समाज की सुविधा कुछ न कुछ तो बढ़ती ही है, पर उतने भर से व्यापक परिवर्तनों की आशा नहीं की जा सकती। पैसा महाशय तो जैसे कुछ हैं वैसे ही हैं, उसके सहारे लम्बी योजनाएँ बनाने से पहले यह सोचना पड़ता है कि वे जिनके हाथ में रहेंगे, उन्हें नैतिक दृष्टि से जीवित भी छोड़ेंगे या नहीं।
सार्वजनिक उपयोग में आने से पहले वे प्रयोगकर्ताओं को भी लुभाते और उन्हीं में अटक जाते हैं। लोकमंगल के लिए बनी सरकारी योजनाओं के लिए निश्चित की गयी धनराशि का कितना अंश अभीष्ट प्रयोजन में लगता है और कितना बिचौलिए हड़प जाते हैं यह कौतुक हर किसी को पग-पग पर देखने के लिए मिलता रहता है। ऐसी दशा में युग निर्माण के लिए उस शक्ति का संचय कर लेने पर भी क्या कुछ प्रयोजन पूरा हो सकेगा ? इसमें पूरा संदेह है।
आत्मिक क्षेत्र की योजनाएँ आत्मशक्ति के उपार्जन और नियोजन से ही सम्भव हो सकेंगी। मनुष्य के अन्तराल में सन्निहित ज्ञात और अविज्ञात शक्तियों की समर्थता और संभावना असीम है, उसे अनन्त कहा जाये तो भी अत्युक्ति न होगी। मनःशास्त्री बताते हैं कि मानवी मस्तिष्क अद्भुत है, उसकी सुविस्तृत क्षमता में से अभी तक मात्र सात प्रतिशत को ही जाना जा सका है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book